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Showing posts from May 22, 2017
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वक़्त वक़्त हो चला है की मै अपने ज़ख्म, भरने का इंतज़ार करना छोड़ कर उनके साथ लड़ना सीख़ लूं। वक़्त हो चला है की भरोसे की लाठी छोड़ कर अपने फैसलों का सहारा लेना शुरू करु अब वक़्त हुआ है की मैं जज़्बातों से ज़्यादा हिम्मत से काम लू अब सही मायनों में जीना शुरू कर दूं। अब वक़्त हो चला है की पिछला भुला कर आगे की ओर देखु हां, अब वक़्त हो चला है की मैं अपनी शख़्शियत से मुलाकात कर कोई नियोजन बांध लूं और विशवास दिलाऊ खुद को , नज़रें करम में ज़रूरत पड़ने पर वक़्त से मुखातिब होने से डरूँगी नहीं घबरा कर पीछे भी नहीं हटूंगी किसी के साये का सहारा भी नहीं लुंगी ना अंधरे से रोशनी की ओर भागुंगी। क्योंकि वक़्त हो चला है की मैं, खुद को पहचान लूं अब मैं मैं हो जाऊं।
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अच्छा था ! खेलना  भी  अच्छा  था, बढ़ना  भी  अच्छा  था बढे  तो  बिगड़ना  भी  अच्छा  था फिर  जब  ठोकर  लगी, तो  चोट  का लगना    भी  अच्छा  था चोट   का   लगना   दिल   का   दुखना , ज़िन्दगी   का   बदलना   भी   अच्छा   था  . अच्छा   था   जो   तू   रोया यूँ रोया   तो   इंसान   होने   की   पहचान   दी न   रोता   तो   क्या   समझते मुर्दों   सी   अकड़   में   जीता था फूट   के   रोना   भी   अच्छा   था . फिर   उम्मीद   मिली  . उम्मीद   का   आना   भी   अच्छा   था तेरा   क़दमों   पे   खड़ा   होना   भी   अच्छा   था उम्मीद   जो   टूटी   हो तो   उसका   टूटना   भी   अच्छा   था . तेरा   भट...
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मेरी दादी माँ मेरी दादी माँ वक़्त का जंजाल देख रहे हो दोस्त  रेत सा बहता जा रहा है, मुठ्ठी से  जैसे कोई कहानी कहता जा रहा है, नम आँखों से  हजारों कहानियाँ सुनी हैं तुमने  न जाने कितनी किताबें पढ़ी होंगी  फसता जा रहा हु मैं कहता एक नायक है  वक़्त से बढ़ताजा रहा हुँ  जाने किस की तलाश है, भटकता जा रहा हूं।  याद हैं वो मिटटी के खिलौनें, बचपन के  टूटी टहनी नीम की  यादों के पिटारे से निकाल रहा हूँ  आज एक और कहानी सुना रहा हूँ  स्याही लगी एक दीवार पर  लकड़ी के एक किवाड़ से  गोबर से लीपे एक आँगन में  मेरी दादी रहती थी।  दादी सदा ही कहती थी , संभाल के चलना  कोई काँटा न चुभ जाए  तब मैं बहुत गुस्सा किया करता था  लीपे आंगन पे न चल पाता था  नंगे पाँव पे दाग़ लगाए माँ के पास मैं जाता था देखो न पर गंदा हो गया क्यों लीपा  करती हो आँगन को गोबर से सीमेंट का फ़र्ष क्यों नहीं बनवा लेती एक शिकन ना आता चेहरे पे दादी के मेरी बचकानी बातों को अनसुन...
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जीवन बस एक कहानी है जीवन बस एक कहानी है समय को संशय की ज़रूरत नहीं सत्य को प्रमाण की ज़रूरत नहीं साँझ हुई थी सावेर के लिए रात भी ठहरी थी कुछ देर के लिए मन मेरा चंचल है चित्त स्थिर पहरेदार है सूक्ष्म से इस शरीर को , घेरे हज़ार दीवार है नभ सी खुली आशाओ में सितारों से कुछ विचार है धरती सा ह्रदय मेरा, सागर आ मन अपार है सुख सानिध्य की तलाश में अंतर्मन को टटोल रही स्वेत आवरण में लिपटा, जला सारा संसार है पग पग धुंधली हुई , कोमल सी स्याही  है निंद्रा दूर कही इठला रही, कामनाओ की बौछार है लाल रंग में लिपटा , बेजान सा अक्ष होगा पहचान वही है , जिस से मेरा बोध होगा कमल सा कोमल , सुगंधित सुन्दर कीचड़ में फूलो सा महकना ,जीवन के इस जंगल में आत्मा को मिली काया काया मिट्टी में मिल जानी है पँख लगा आत्मा फिर उड़  जानी है पाओ के छाप पड़े जब रेत पे आती लहरो से फिर मिट  जानी है कहती हु मैं जो कहानी कल फिर किसी और को भी सुननी है विशाल से इस संसार में जीवन आनी और जानी  है समर्पण का स्वाभाव  रखना कुदरत की ही निशानी है मानवता के हित में जीवन बस एक कहानी है जीवन बस ...