ज़माना आज कल देख रही हु कल की आँच पे आज सेक रही हु जैसे साँझ सुबह की रह तकती है वैसे ही आज एक चाह रखती हु न जाने तू क्यों अनजान है बदलती इंसान की फिदरत से हैरान है सोच के कल के दुखो को आखो से आंसू बहाती हु न जाने क्यों इतना सोच जाती हु कल जो आने वाला है वह रंगों का बोल-बाला है न ख़त होगा, न फ़रियाद सुनी जाएगी सच तो मुह से भी न बोला जायेगा झुठ और फ़रेब का ज़माना होगा हर एक रूह मौत को रवाना होगा पुनर्जनम की कामना कर फिर आँखे मीच भूल जाने की सोचती हु ख़ुली आखो से जैसे कोई स्वपन देखती हु तू जग को बनाता है अपनी मर्ज़ी से वक़्त के साथ बढ़ता चला जाता है किसी को सिख दे जाता है उम्र भर सिखने की मेरा भी एक काम कर आ जिसने बनाया उस पैगाम दे आ जिस दिन बनाया था, क्या यह देखने की कामना की थी जब तू अपनों से बर्बाद होगा विस्वास का क़त्ल करेगा न दर्द होगा न चीख़ निकलेगी बस मन ह...
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