धर्म का भाग 


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              मैं कलंक हु समाज का 
             मैं निरावरण हु लाज का 



        कुछ ऐसा ही गीत मेरे कानो ने सुना 

           और एक प्रश्न की पंक्तियों को मैंने बुना 

           किसका एहसान मनु तूझे बनाने का 
           तूझे दोषी मानते है लोग ज़माने का 




             वो असतित्व की खोज करते है 
             वो जीने को संगर्ष रोज़ करते है 
            आपनो से ठुकराए जाने पर भी                            
            वो खुशियो की कामना रोज़ करते है                            

      पहचान तो न जाने कितने नमो से होती है 
     फिर भी न जाने क्यों कोशिश दृष्टि पाने की रोज़ करते है 

      क्यों अनदेखा करते है उनको 
      एक ही ने तो बनाया है सबको 

      किन्नर कोई चाह से नहीं होता 
      चयन यही है, वो गुनाह नहीं होता 


     इंसान तो वो भी है
     फिर भी जीने में स्वाभिमान क्यों नहीं होता
     न भेष अलग है  न भाषा विपरीत है

    धर्म से आज मजबूर किया है                
    तन से जाती का वितरण किया है 

   दोष न होने पर भी कलंक बना दिया है 
   मन के धनि को तुमने रंक बना दिया है 

  क्यों  नहीं देते जगह दिल में 
  क्यों नहीं देते पहचान जग में


                                                                   
    मानव हो मानव को पहचानो 
    अब तो इस निंद्रा से जागो

    होश खो बैठे हो अब तो जागो

   बदनाम करते हो तो नाम देने का सहस रखो
    जब यह गलती नहीं तो अपनाने की चाहत रखो

    न कसूर उनका है न जन्मदात्री का
    तो दो दे कर होश क्यों खोते हो

     हर जन्म लेने वाले को अपना नाम दो
     आस्तित्व में अपनी पहचान दो

     नाम दो, पहचान दो, स्वाभिमान दो, आज़ादी दो

     आज सबको जीने का अधिकार दो
     उसे कुछ धर्म का भाग दो















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